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अरै मैं बुरी कंगाली धन बिन कीसी रै मरोड़ ?
भोगा, बुरी रै कंगाली, धन बिन कीसी रै मरोड़!
धनवन्त घरां आणके कह जा
निरधन ऊँची-नीची सब सह जा
सर पर बंधा-बंधाया रह जा
माथे पर का रै मोड़ ।
अरै मैं बुरी कंगाली धन बिन कीसी रै मरोड़!
निरधन सारी उमर दुख पावे
भूखा नंग रहके हल बाहवे
भोगा, बिना घी के चूरमा
तेरी रहला कमर तै रै तोड़
अरै मैं बुरी कंगाली धन बिन कीसी रै मरोड़ !
भावार्थ
--'बुरी है ग़रीबी, धन के बिना कैसा नखरा? मैं सब भोग चुका हूँ, गरीबी बुरी बला है । धन के बिना कोई
नखरा नहीं किया जा सकता । धनी ग़रीब के घर आकर, जो चाहता है कहकर चला जाता है । ग़रीब व्यक्ति उसकी
हर ऊँची-नीची बात सह जाता है । धन के बिना तो सर पर बंधी पगड़ी का भी कोई मोल नहीं रह जाता । अरे मैं
सब झेल चुका हूँ । बहुत बुरी है ये कंगाली । धन के बिना कोई सुख नहीं पाया जा सकता है । ग़रीब व्यक्ति सारी
उमर दुख पाता है । वह भूखा-नंगा रह कर हल चलाता है और खेत जोतता है । अरे ओ भोगा, क्या किया तूने ?
बिना घी की रोटी का जो चूरमा (चूरा) तूने कपड़े में बांध कर अपनी कमर पर लटका रखा है, वह तेरी कमर
का बोझ बनकर उसे तोड़ रहा है । अरे, मैं यह बुरी कंगाली ख़ूब झेल चुका हूँ । पैसे के बिना जीवन में कोई सुख
नहीं है ।'