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चुलबुली कन्या बनि गेलहुँ / कुसुम ठाकुर

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बिसरल छलहुँ हम कतेक बरिस सँ,
अपन सभ अरमान आ सपना।
कोना लोक हँसए कोना हँसाबए,
आ कि हँसीमे सामिल होमए।
आइ अनचोक्के अपन बदलल,
स्वभाव देखि हम स्वयं अचंभित।
दिन भरि हम सोचिते रहि गेलहुँ,
मुदा जवाब हमरा नहि भेटल।
एक दिन हम छलहुँ हेराएल,
ध्यान कतए छल से नहि जानि।
अकस्मात मोन भेल प्रफुल्लित,
सोचि आएल हमर मुँहपर मुस्की।
हम बुझि गेलहुँ आजु किएक,
हमर स्वभाव एतेक बदलि गेल।
किन्कहुपर विश्वास एतेक जे,
फेर सँ चंचल, चुलबुली कन्या बनि गेलहुँ।।