कर के जगती को धन्य तृप्त
आनन्द, हर्ष, नवगति, नव-सृष्टि,
धुल गयी धरा, धुल गये वृक्ष
सावन भी जाने को है,
ओ प्रवासी कब आओगे?
भाने लगे विहग के कलरव
अमलतास फूलों से भर गये,
प्रकृति ने कर लिया, नव श्रृंगार अब
दिन धूप भरे जाने को हैं,
ओ प्रवासी कब आओगे?
बंजर खेत भी हुए हरे
ताल-तलैया भर गयी है,
ओस बूँद की गयी मुझसे
पावस अब आने को है,
ओ प्रवासी कब आओगे?
दिवस आ गये अब पर्वों के
रातों में जुगनू उड़ते हैं,
झर-झर गिरती रजनीगंधा
झोंके पुरवा के यूँ बहते हैं,
निशा छुप गयी है पलकों में
अब प्रातः आने को है,
ओ प्रवासी कब आओगे?