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महानगरी की सुबह है / कुमार रवींद्र

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हवा बेदम
रौशनी कम
महानगरी की सुबह है
 
रात-भर जो धुआँ उपजा
वही पेड़ों पर टिका है
उधर कोने में
जरा-सी झलक-भर
सूरज दिखा है
 
पेड़ चुप हैं
धूप मद्धम
महानगरी की सुबह है
 
सो रहे घर
दूर तक फैली सड़क
सूनी पड़ी है
ढेर कूड़े का
उसी के पास
इक लडकी खड़ी है
 
बुझा चेहरा
आँख है नम
महानगरी की सुबह है
 
दूर दिखते लाट-गुंबद
वहीँ है शाही अखाडा
रोज़ चलते स्वाँग उसमें
रात-भर बजता नगाड़ा
 
दिप रहे हैं
वहीँ परचम
महानगरी की सुबह है