भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रखो खुला यह द्वार (नवगीत) / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:43, 23 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार रवींद्र |अनुवादक= |संग्रह=र...' के साथ नया पन्ना बनाया)
जाने कब
सूरज आ जाये
रखो खुला यह अपना द्वार
बच्चे हँसे
सुना तुमने
वह हँसी धूप को टेर रही
चिड़िया उड़कर
अपने पंखों में सूरज को घेर रही
घर में उनको
आने तो दो
मिट जायेगा सब अँधियार
थोड़ा-सा तो आसमान
इस खिड़की से भी दिखने दो
परदे खोलो
तितली को संदेश फूल का
लिखने दो
देखो, पहले भी
दस्तक दे
लौट चुकी वह कितनी बार
जोत हवा में तैर रही जो
उसे भरो तो आँखों में
तभी देख पाओगे अचरज
जो रचती रितु शाखों में
बचपन में
जो सपने देखे
उनको होने दो साकार