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इसी गली के आखिर में / कुमार रवींद्र

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इसी गली के
आखिर में है
एक लखौरी ईंटों का घर
 
किस पुरखे ने था बनवाया
दादी को भी पता नहीं
बसा रहा
अब उजड़ रहा है
इसमें इसकी खता नहीं
 
एक-एक कर
लडके सारे
निकल गये हैं इससे बाहर
 
बड़के की नौकरी बड़ी थी
उसे मिली कोठी सरकारी
पता नहीं कितने सेठों ने
उसकी है आरती उतारी
 
नदी-पार की
कॉलोनी में
कोठी बनी नई है सुंदर
 
मँझले-छुटके ने भी
देखादेखी
बाहर फ्लैट ले लिये
दादी-बाबा हैं जब तक
तब तक ही घर में
जलेंगे दिये
 
पीपल है आँगन में
उस पर भी
रहता है अब तो पतझर