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अंधी दौड़ें सड़क-दर-सड़क / कुमार रवींद्र

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सुनो, सच में
इधर से पगडंडियाँ जाती नहीं हैं
 
महानगरी से सड़क के जाल फैले
फैलते ही जा रहे हैं
इन दिनों बस
गुम्बदों के महावन की
लोग महिमा गा रहे हैं
 
जहाँ किरणें
डूब जाती हैं- लौटकर आती नहीं हैं
 
सड़क-दर-सड़क अंधी दौड़ें
यही आज की सच्चाई है
पगडंडी के एक ओर
ऊँचा पर्वत है
दूजी ओर अंध खाई है
 
इन दिनों
पगडंडियों की
विजयगाथा कोई ऋतु गाती नहीं है
 
पाँव से पगडंडियों का
रहा रिश्ता-
कट चुका है
मोटरों की हो गई भरमार
लो, ट्रैफिक रुका है
 
आज का
अख़बार है यह
यह किसी की नेह की पाती नहीं है