Last modified on 24 अक्टूबर 2013, at 13:42

एक बार फिर / इमरोज़ / हरकीरत हकीर

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:42, 24 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=इमरोज़ |अनुवादक=हरकीरत हकीर |संग्...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

सवेरे सवेरे
तुम्हारे साथ सवेर कर रहा था
कि मोबाइल से इशारा हुआ
कि पैसे खत्म हो गए हैं
कैसे इत्तिफ़ाक हैं कि संस्कार भी
कभी मोबाईल से पैसे खत्म हो जाते हैं
तो कभी रिश्तों में से रिश्ते
इक दो ईदों से
ईद नहीं होगी
जितने वक़्त मनचाही ज़िन्दगी
हमारा जन्म सिद्ध अधिकार नहीं बनता
ईदें मनचाही नहीं होंगी
मनचाहे रिश्तों के रोज़े
क्या पता कब खत्म हों या न हों
ख्यालों के चाँद
और नज्मों की ईदें ही अब तो
अपनी मनचाही ईदें हैं …
चल आ
बच्चों की तरह मासूम बन
इक बार फिर
फूलों में दौड़ - दौड़ कर खिल - खिल कर
और खुशबूओं संग उड़ -उड़ कर हँसे
सभी अनचाहे रिश्तों से अनचाहे संस्कारों से
और अनचाहे रोजों से बेफिक्र होकर
तितलियों की तरह बेफिक्रों की तरह...