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कादम्बरी / पृष्ठ 37 / दामोदर झा

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39.
अनदेखल मनुष्य केर डरसँ ओ दुहु पवन-वेगसँ भागल
घोड़ाके कोरा दय चन्द्रापीड़ गेला तकरे सङ लागत।
जान उपेखल सब सबार नहि इन्द्रायुधक चालिमे सकले
वन-झाँखड़सँ ओट भेला ओ हिनको सबहक घोड़ा थकले॥

40.
योजन पाँच पार कय छनमे पहँुचथि जा कैलासक परिसर
किन्नर दहु दु्रत गतिसँ भागल सोझे चढ़ल पहाड़क ऊपर।
हिनकर घोड़ा नहि चढ़ि सकलनि ठाढ़ शिखर पर बात असम्भव
भय निरुपाय तुरंग ठाढ़ कय निरखथि ऊपर गेल वनोद्भव॥

41.
इन्द्रायुध श्रम जलहिं नहायल हकमय अपनहुँ छथि एकेश्वर
छल ओ प्रान्त मनुष्य-अगोचर, बड़ बड़ गाछ शिला गिरि गढ़हर।
सबटा देखि स्वयं पछतयला की हम कयल कोन ठाँ अयलहुँ
मूर्ख जकाँ अनुचित आग्रहसँ विनिु सोचल कुठाम बहरयलहुँ॥

42.
बालक जकाँ निरर्थक अपना तनुमे कठिन परिश्रम देलहुँ
हानि-लाभ हम नहि किछु सोचल बुद्धिमान केर पदो गमओलहुँ।
किन्नर धयला नहि धयलासँ की छल लाभ हानि वा भेले
ई सब हम कनिंजो नहि सोचल दुर्गम वनक बाट धय लेले॥

43.
दौड़ल छलहुँ भूत लागल सन आँखि युगल किन्नर पर धयने
अयलहुँ कोन मार्गसँ भूतल केहन छलय ई ज्ञान हेरयने।
पाथर वा पातक ढेरी पर इन्द्रायुधक खुरो नहि निरखब
एतय मनुष्य कतय जकरासँ स्वर्णपुरक हम रस्ता पूछब॥