भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कादम्बरी / पृष्ठ 111 / दामोदर झा

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:25, 30 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दामोदर झा |अनुवादक= |संग्रह=कादम्...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

64.
कन्द मूल फल जंगलसँ लहि सब भोजन कय
घोड़ा सबके सर नहाय भरि पेट घास दय।
तखन करब भरिपूर यत्न ओकरा तकबालय
ओएह एक अछि औषध सभक कष्ट हरबालय॥

65.
आज्ञा पाबि सकल सैनिक सन्नाह उतारल
कयलक सबटा काज ततय जहिना जे पारल।
सोचल पुनि युवराज महाश्वेता जनने हो
हमर मित्र छथि एतय तरलिका जँ कहने हो॥

66.
ई बिचारि अच्छोदक पश्चिम तट पथ चलले
संग जे अश्वसवार तुरत चढ़ि सब अनुसरले।
संग बलाहक सेनापति किदु गप्प करै छथि
अन्वेषणक विधाने मन उत्साह भरै छथि॥

67.
पहुँचथि चन्द्रपीड़ महाश्वेता आश्रम लग
लड़खड़ाय इन्द्रायुध यद्यपि छल समथल मग।
आश्रम लगमे ठाढ़ि महाश्वेताके देखल
दूरहिसँ युवराज सफलता मन अवलेखल॥

68.
किन्तु कुमरके देखि बल्कलहिं मुख ओ झाँपल
जनु मलेरिया ज्वर लागल तहना ओ काँपल।
दुःसह भेल शरीर तरलिका पीठ पकड़लक
भूमि उपर बैसलि कहुना ओ पाछू अड़लक॥