भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चीड़ के पेड़ / बरीस पास्तेरनाक

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:51, 2 नवम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बरीस पास्तेरनाक |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वन्‍य औषधियों के बीच घास में
कर्पूर पुष्‍पों से घिरे हुए
लेटे हैं हम हाथ रख कर पीछे
आकाश की तरफ मुँह किये।

चीड़ के पेड़ों के बीच उग आई हैं घास
इतनी घनी कि कठिन है गुजरना उसके बीच से।
हम देखते हैं एक दूसरे की तरफ
और एक बार फिर बदलते हैं जगह और मुद्राएँ।

यह रहे हम कुछ समय के लिए अमर्त्‍य
चीड़ों के प्रति सम्‍मान से भरे हुए
मुक्‍त बीमारियों, महामारियों
और मृत्‍यु से।

और घनी एकरसता के साथ
मरहम की तरह टपकती है नीलिमा
गिरती हैं जमीन पर
मलिन करती हमारी आस्‍तीनों को।

बॉंटते हैं हम जंगल की इस शांति को
चीटियों की सरसराहट सुनते हुए
सूँघते हुए नींबू और धूप से बने
चीड़ के इस निद्रादायी घोल को।

नीले आकाश की पृष्‍ठभूमि में
क्रोध से भरा है अग्निमय तनों का हिलना
और हम पड़े रहेंगे इसी तरह
हटायेंगे नहीं हाथ सिर के नीचे से।

इतनी विराटता है आँखों के सामने,
सब कुछ इतना विनम्रतापूर्ण
कि हर क्षण हमारी देह के पीछे
दूर तक दिखाई पड़ता है समुद्र एक।
इन टहनियों से भी ऊँची लहरें हैं वहाँ
गोल चट्टानों से टकरा कर लौटती हुई
जो विनाश कर देती हैं झींगा मछलियों के झुण्‍डों का
अतल को मथती हुई।

हर शाम रस्‍सों के पीछे
खिंची चली आती है साँझ
मछलियों की चर्बी की चमक
अंदर का धुँधलापन छोड़ते हुए।

अँधेरा होने लगता है और धीरे-धीरे
चंद्रमा दफना देता है हर निशान
झाग के सफेद जादू
और पानी के काले जादू के नीचे।

गरजती हुई ऊपर उठती है लहरें
और रेस्‍तरां में लोगों की भीड़
खड़ी होती है इश्तिहार के पास
पर पढ़ा नहीं जा सकता उसे दूर से।