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न सोच कोई, न शिकायत / मरीना स्विताएवा

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न सोच कोई, न शिकायत,
न विवाद कोई, न नींद ।
न सूर्य की इच्‍छा, न चन्द्रमा की,
न समुद्र की, न जहाज़ की ।

महसूस नहीं होती गरमी
इन दीवारों के भीतर की,
दिखती नहीं हरियाली
बाहर के उद्यानों की ।
इन्तज़ार नहीं रहता अब
उन उपहारों का
जिन्‍हें पाने की पहले
रहती थी बहुत इच्‍छा ।

न सुबह की ख़ामोशी भाती है
न शाम को ट्रामों की सुरीली आवाज़,
जी रही हूँ बिना देखे --
कैसा है वह दिन? कैसा है यह दिन
भूल जाती हूँ
कौन-सी तारीख़ है आज
और कौनसी यह सदी ? और कौन-सी है सदी ?

लगता है जैसे फटे तम्बू के भीतर
मैं एक नर्तकी हूँ छोटी-सी
छाया हूँ किसी दूसरे की
पागल हूँ दो अँधियारे चन्द्रमाओं से घिरी ।