भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हे राधे! हे श्याम-प्रियतमे! / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:29, 3 दिसम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हे राधे! हे श्याम-प्रियतमे! हम हैं अतिशय पामर, दीन ।
भोग-रागमय, काम-कलुषमय मन प्रपच-रत, नित्य मलीन ॥
शुचितम, दिव्य तुम्हारा दुर्लभ यह चिन्मय रसमय दरबार ।
ऋषि-मुनि-जानी-योगीका भी नहीं यहाँ प्रवेश-‌अधिकार ॥
फिर हम जैसे पामर प्राणी कैसे इसमें करें प्रवेश ।
मनके कुटिल, बनाये सुन्दर ऊपरसे प्रेमीका वेश ॥
पर राधे! यह सुनो हमारी दैन्यभरी अति करुण पुकार ।
पड़े एक कोनेमें जो हम देख सकें रसमय दरबार ॥
अथवा जूती साफ करें, झाड़ू दें-सौंपो यह शुचि काम ।
रजकणके लगते ही होंगे नाश हमारे पाप तमाम ॥
होगा दभ दूर, फिर पाकर कृपा तुम्हारीका कण-लेश ।
जिससे हम भी हो जायेंगे रहने लायक तव पद-देश ॥
जैसे-तैसे हैं, पर स्वामिनि! हैं हम सदा तुम्हारे दास ।
तुम्हीं दया कर दोष हरो, फिर दे दो निज पद-तलमें वास ॥
सहज दयामयि! दीनवत्सला! ऐसा करो स्नेहका दान ।
जीवन-मधुप धन्य हो जिससे कर पद-पङङ्कज-मधुका पान ॥