Last modified on 17 नवम्बर 2007, at 20:24

प्रिय चिरन्तन है सजनि / महादेवी वर्मा

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:24, 17 नवम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महादेवी वर्मा |संग्रह=सांध्यगीत / महादेवी वर्मा }} प्र...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

प्रिय चिरन्तन है सजनि
क्षण क्षण नवीन सुहागिनी मैं!

श्वास में मुझको छिपा कर वह असीम विशाल चिर घन,
शून्य में जब छा गया उसकी सजीली साध सा बन,

छिप कहाँ उसमें सकी
बुझ बुझ जली चल दामिनी मैं!

छाँह को उसकी सजनि नव आवरण अपना बनाकर,
धूलि में निज अश्रु बोने में पहर सूने बिताकर,

प्रात में हँस छिप गई
ले छलकते दृग यामिनी मैं!

मिल-मन्दिर में उठा दूँ जो सुमुख से सजल ‘गुण्ठन’
मैं मिटूँ प्रिय में मिटा ज्यों तप्त सिकता में सलिल-कण

सजनि मधुर निजत्व दे
कैसे मिलूँ अभिमानिनि मैं!

दीप सी युग जलूँ पर वह सुभग अतना बता दे,
फूँक से उसकी बुझूँ तब क्षार ही मेरा पता दे!

वह रहे आराध्य चिन्मय
मृण्मयी अनुरागिनी मैं!

सजल सीमित पुतलियाँ पर चित्र अमिट असीम का वह
चाह एक अनन्त बसती प्राण किन्तु ससीम सा यह;

रजकणों में खेलती किस
विरज विधु की चाँदनी मैं?