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दलित-सम्मान / तारानंद वियोगी
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किछुओ नहि बिगाड़ने छलियनि जखन कि हुनकर हम
हमरा लेल जखन कखनहु ओ चाहला, अशुभे चाहला |
एहन-एहन बाधा ठाढ़ केलनि
जे सबहक लेल जे छलै मात्र दौड़-स्पर्धा,
हमरा लेल बाधा-दौड़ छल|
ताहू पर देत रहला होह्कारी
जे हम आरक्षणक पोसाएल छी|
लोकतन्त्रक खिलाफ मे जं पचास तर्क रहनि हुनका लग,
तं वर्ण-व्यवस्थाक उदारता पर हुनक भाषण
सठबाक नाम नहि लियय, तते पक्ष रहनि|
आब जखन एते तपस्या सं केलहुं-ए कहुना धार पार
कोना बिसरी मझधारक कष्ट?
कोना कात क’ दी ओहि प्रतिबद्धता कें
जे हुनका लोकनिक लेल छनि
जे धार मे एखन धँसल छथि....
नहि नहि
हिनका सं हमरा नहि किछु चाही,
ने आसन, ने सम्मान
ने चाबस्सी, ने तारीफ|
आखिर कोना क’ सकता ओ हमर सम्मान,
जखन कि ओ अपन थरिये पर छथि?