भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

को अपराधी मो सम आन / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:34, 3 जनवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

को अपराधी मो सम आन ?
प्रभु-बंचक, पर-बंचक, पुनि निज-बंचक, बे‌ईमान॥
भटक रह्यौ भोगनि महँ भूल्यौ सब भविष्य कौ भान।
अघमय नित्य कुकर्मपरायन, तजि मानवता-मान॥
मलिन बिचार, कर्म सब गंदे, ममता-मद-‌अभिमान।
काम-लोभ कौ चेरौ, निसि-दिन करौं पाप हित जान॥
नहीं धर्म कौ भय कछु मो मन, नहिं करतब कौ ग्यान।
बिसरि ग‌ए सब-दरसी उर में बसे सदा भगवान॥
जपूँ न नाम तुहारौ कबहूँ, करूँ न कबहूँ ध्यान।
जूता लगैं, तदपि मैं जाऊँ फिरि-फिरि तहँ जिमि स्वान॥
प्रभु मो नीच पतित पाँवर कौं करौ कृपा कौ दान।
जेहि-केहि बिधि राखौ चरननि महँ, निपट निराश्रय जान॥