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जनम सब बीत्यौ अघ कें काम / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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जनम सब बीत्यौ अघ कें काम।
ड्डँस्यौ मोह-ममतामें निसि दिन भज्यौ न चित दै राम॥
लोगनि कह्यौ-’भजौ नित हरि कौं’, धर्यौ साधु कौ बेष।
मन में रही कामिनी-कंचन की कामना बिसेष॥
जैसैं बिषपूरित घट-मुख मिथ्या पय सोभा पावै।
तैसैहिं कुटिल-हृदय मम मुख पर सुचि हरिकथा सुहावै॥
पापी परम, अधम, अभिमानी, बंचक, मन कौ कारौ।
बिरुद बिचारि दयानिधि! अब मोहि निज चरननि में डारौ॥