मानव-जन्म सुदुर्लभ पाकर / हनुमानप्रसाद पोद्दार
मानव-जन्म सुदुर्लभ पाकर, भजे नहीं मैंने भगवान।
रचा-पचा मैं रहा निरन्तर, मिथ्या भोगोंमें सुख मान॥
मान लिया मैंने जीवनका लक्ष्य एक इन्द्रिय-सुख-भोग।
बढ़ते रहे सहज ही इससे नये-नये तन-मनके रोग॥
बढ़ता रहा नित्य कामज्वर, ममता-राग-मोह-मद-मान।
हुई आत्म-विस्मृति, छाया उन्माद, मिट गया सारा जान॥
केवल आ बस गया चिामें राग-द्वेष-पूर्ण संसार।
हुए उदय जीवनमें लाखों घोर पतनके हेतु विकार॥
समझा मैंने पुण्य पापको, ध्रुव विनाशको बड़ा विकास।
लोभ-क्रएध-द्वेष-हिंसावश जाग उठा अघमें उल्लास॥
जलने लगा हृदयमें दारुण अनल, मिट गयी सारी शान्ति।
दभ हो गया जीवन-सबल, छायी अमित अमिट-सी भ्रान्ति॥
जीवन-संध्या हुई, आ गया इस जीवनका अन्तिम काल।
तब भी नहीं चेतना आयी, टूटा नहीं मोह-जंजाल॥
प्रभो! कृपा कर अब इस पामर, पथभ्रष्टस्न्पर सहज उदार।
चरण-शरणमें लेकर कर दो, नाथ! अधमका अब उद्धार॥