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नाथ! थाँरै सरणै आयो जी / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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नाथ! थाँरै सरणै आयो जी।
जचै जिस तराँ खेल खिला‌ओ, थे मन-चायो जी॥
बोझो सभी ऊतर्‌यो मनको, दुख बिनसायो जी।
चिंता मिटी, बड़े चरणाँको स्हारो पायो जी॥
सोच-फिकर अब सारो थाँरै ऊपर आयो जी।
मैं तो अब नि्‌स्चिंत हुयो अंतर हरखायो जी॥
जस-‌अपजस सब थाँरो मैं तो दास कुहायो जी।
मन भँवरो थाँरै चरण-कमलमें जा लिपटायो जी॥