भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खड़ा अपराधी प्रभु के द्वार / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:05, 3 जनवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
खड़ा अपराधी प्रभु के द्वार।
न्याय चाहता, क्षमा नहीं, दो दण्ड दोष-अनुसार॥-१॥
अर्थदण्ड देना चाहो तो करो स्वार्थ सब छार।
रहने मत दो कुछ भी इसके ‘अपना’-’मेरा’कार॥-२॥
कैद अगर करना चाहो तो प्रेम-बेडिय़ाँ डार।
रक्खोबाँध इसे नित निज चरणोंके कारागार॥-३॥
निर्वासित करना चाहो तो लूटो घर-संसार।
पहुँचा दो सत्वर दोषीको भव-समुद्रके पार॥-४॥
कभी न आने दो फिर वापस, मरने दो बेकार।
बह जाने दो इसे वहाँ सच्चिदानन्दकी धार॥-५॥