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चली स्याम-गत-चित्ता ग्वालिनि / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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चली स्याम-गत-चित्ता ग्वालिनि धर सिर दधि-पूरन मटकी।
चिंतत स्याम, पुकारत स्यामहि, पहुँची बन इकंत भटकी॥
मधुर-बिकलता गोपी-मन की, स्याम-चिा में जा खटकी।
प्रगटे तुरत, मधुर गोपी-मुख-पद्म दृष्टि-भ्रमरी अटकी॥
निरखि स्याम सन्मुख सहसा मन छयौ अमित अचरज आनंद।
देखि रही अपलक अचरज, अंगुरि धरि चिबुक, बदन सुख-कंद॥
रसमय स्याम लैन हिय-रस-दधि भर्यौ लगे लूटन स्वच्छंद।
छल क्यौ दधि उत इत मन-रस-निधि छल क्यौ, बढ्यौ तोरि सब बंध॥