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किसान / गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

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मानापमान का नहीं ध्यान, बकते हैं उनको बदज़ुबान,
कारिन्दे कलि के कूचवान, दौड़ाते, देते दुख महान,
चुप रहते, सहते हैं किसान ।।
नजराने देते पेट काट, कारिन्दे लेते लहू चाट,
दरबार बीऊच कह चुके लाट, पर ठोंक-ठोंक अपना लिलाट,
रोते दुखड़ा अब भी किसान ।।
कितने ही बेढब सूदखोर, लेते हैं हड्डी तक चिंचोर,
है मन्त्रसिद्ध मानो अघोर, निर्दय, निर्गुण, निर्मम, कठोर,
है जिनके हाथों में किसान ।।
जब तक कट मरकर हो न ढेर, कच्चा-पक्का खा रहे सेर,
आ गया दिनों का वही फेर, बँट गया न इसमें लगी देर,
अब खाएँ किसे कहिए किसान ।।
कुछ माँग ले गए भाँड़, भाँट कुछ शहना लहना हो निपाट,
कुछ ज़िलेदार ने लिया डाट, हैं बन्द दयानिधि के कपाट,
किसके आगे रोएँ किसान ।।
है निपट निरक्षर बाल-भाव, चुप रहने का है बड़ा चाव,
पद-पद पर टकरा रही नाव, है कर्णधार ही का अभाव,
आशावश जीते हैं किसान ।।
अब गोधन की वहाँ कहाँ भीर, दो डाँगर हैं जर्जर शरीर,
घण्टों में पहुँचे खेत तीर, पद-पद पर होती कठिन पीर,
हैं बरद यही भिक्षुक किसान ।।
फिर भी सह-सहकर घोर ताप, दिन रात परिश्रम कर अमाप,
देते सब कुछ, देते न शाप, मुँह बाँधे रहते हाय आप,
दुखियारे हैं प्यारे किसान ।।
जितने हैं व्योहर ज़मींदार, उनके पेटों का नहीं पार,
भस्माग्नि रोग का है प्रचार, जो कुछ पाएँ, जाएँ डकार,
उनके चर्वण से हैं किसान ।।
इनकी सुध लेगा कौन हाय, ये ख़ुद भी तो हैं मौन हाय,
हों कहाँ राधिकारौन हाय ? क्यों बन्द किए हैं श्रोन हाय ?
गोपाल ! गुड़ गए हैं किसान ।।
उद्धार भरत-भू का विचार, जो फैलाते हैं सद्विचार,
उनसे मेरी इतनी पुकार, पहिले कृषकों को करें पार,
अब बीच धार में हैं किसान ।।