भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नवगीत - 4 / श्रीकृष्ण तिवारी

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:43, 3 फ़रवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीकृष्ण तिवारी |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुछ के रुख दक्षिण
कुछ वाम
सूरज के घोड़े हो गए
बेलगाम

थोड़ी- सी तेज हुई हवा
और हिल गई सड़क
लुढ़क गया शहर एक ओर
ख़ामोशी उतर गई केंचुल -सी
माथे के उपर बहने लगा
तेज धार पानी सा शोर
अफ़वाहों के हाथों
चेक की तरह भूनने लग गई
आवारा सुबह और शाम

पत्थर को चीरती हुई सभी
आवाज़ें कहीं गईं मर
गरमाहट सिर्फ राख की
जिन्दा है इस मौसम भर
ताश -महल फिर बनने लग गया
चुस्त लगे होने फिर
हुकुम के गुलाम |