Last modified on 6 फ़रवरी 2014, at 17:22

सुख का संबल / उमा अर्पिता

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:22, 6 फ़रवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उमा अर्पिता |अनुवादक= |संग्रह=धूप ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

शाम के धुंधलके में
तुम्हें देख पाने की चाह
अपरिचित चेहरों की भीड़ में
तुम्हें तलाशने लगती है!
बिना तुम्हें देखे
जिंदगी
कितनी बेमानी लगने लगती है!
कई बार
भीड़ से कटकर
एकांत में/कॉफी के हर घूँट में
उदासी को घोल
पी जाने का विफल प्रयत्न किया है, पर
हर-बार
सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाई!
ऐसे में
अपनी आँखों में उभरते
तुम्हारे चेहरे को देखना
बड़ा भला लगता है,
तुम्हारे चेहरे का अपनापन
आत्मविभोर कर देता है,
और मैं
तुम्हारे कांधे पर सिर रखे
तुम्हारे स्पर्श की
मृदुलता को जीने लगती हूँ
बस यहीं/यहीं आकर
तुम मेरे सुख का
वो संबल बन जाते हो, जिससे
मैं कभी विलग नहीं होना चाहती।