सखी! हौं स्याम-रंग-रँगी।
बिनु गथ बिकी स्याम कर चिर दिन, प्रेम-पराग पगी॥
रूप-छटा मोहन की मन-मंदिर मम आय खगी।
तिरछी नजर मधुर बरछी-सी उर-बिच आन लगी॥
छत गंभीर भयौ उर, तामें सुखमय जोत जगी।
भयौ सुखद दुख, पीरा में मधु रस-धारा उमगी॥
भूली अग-जग की सुध सारी, ममता सब बिलगी।
देखि बिचित्र दसा तन-मन की, हौं रहि गई ठगी॥
काहू सौं न रही रति, मति-गति मोहन-बदन लगी।
प्रेमानंद छकी संतत, माया की फौज भगी॥