भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पहुना / कालीकान्त झा ‘बूच’
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:52, 6 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कालीकान्त झा ‘बूच’ |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पन्ना बनाया)
हमरो नेने चलियौ, अहाँ अपन गेह पहुना ।
हमहूॅ कऽ नेने छी, अहाँ सऽ सिनेह पहुना ।
अपने केॅ चाही वैदेही
हम सम देह एक ओ देही
हमरो तात बनल छथि देखू ने विदेह पहुना ।
हमरो...
शून्य गगन केर श्याम घटा छी,
मरू पर उमड़ल दिव्य छटा छी,
मधुरी मुँस्की लागै विजुकी क रेह पहुना ।
हमरो...
सभक जीवनक एक प्राण छी,
सगरो गगनक एक चान छी,
हहरै छाती जहिना सागरक रेहपहुना,
हमरो...
हँसि हँसि अहाँ सँ नयन जुड़यलहुँ,
चलऽ काल हा ! ई की कयलहुँ
दशा कतऽ अछि मोन कतऽ ई देह पहुना
हमरो...