शुद्ध सच्चिदानन्द, परम निज महिमा में स्थित, नित्य अकाम।
मेरे सुख-हित वे करते स्वीकार स-मुद अपने मन काम॥
सहज वासना-राग-रहित जो, ममता-रहित नित्य अविकार।
करते मेरे लिये मुझे वे ‘प्रिया’ रूपमें अंगीकार॥
एक-एक गुणपर जिनके मोहित सब सुर-ऋषि-मुनि-संसार।
प्रेम-रूप वे रहते नित्य विमोहित मुझपर बिना विकार॥
जिनके अंग-अंगपर नित्य निछावर कोटि-कोटि-शत काम।
वे मेरा सौन्दर्य निरखते नित्य, न ले पाते विश्राम॥
जिनको कभी न पलभर लगती भूख-प्यास, जो रहते तृप्त।
मेरे रस-प्रसाद कण-हित शुचि वे रहते हैं नित्य अतृप्त॥
रति-रस-मय, रस-रूप, रसिक वे दिव्य प्रेम-रस-पारावार।
प्रेम-सुधा-रस-पान-निरत नित दिव्य प्रेम-विग्रह साकार॥