भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हृदय-भवन में बसे निरन्तर / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:59, 6 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
हृदय-भवन में बसे निरन्तर करते खेल मधुर अविराम।
देते नित्य महासुख मुझको दिखा रूप-सौन्दर्य ललाम॥
आ सकता न कल्पना से भी उसमें कोई भी कुछ और।
क्यों कि सदा छाये रहते प्रियतम मेरे माधव सब ठौर॥
जो चाहे सो करते और कराते वे प्यारे स्वच्छन्द।
नित्य बढ़ाते रहते नव-नव शुचि चिन्मय रसमय आनन्द॥
नहीं लोक-परलोक रह गये, रहा न कोई प्राणि-पदार्थ।
भोग-त्याग कुछ रहा न मेरे, रहे एक प्रियतम परमार्थ॥
मिटा जगत्, मिट गये जगत्के सारे द्वन्द्व दुःख-सुखरूप।
छलक रहा आनन्द-रसाणर्व श्याम ऊर्मिमय मधुर अनूप॥