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सखी री! तू क्यौं भई उदास / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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सखी री! तू क्यौं भई उदास।
जो गिरिराज-धरन नहिं पूजी मेरे मन की आस॥
वे अति रस-रति-चतुर, रसिक-उर-सेखर, परम सुजान।
हौं रस-अग्य, गँवार ग्वालिनी, छायौ हिय अग्यान॥
वे सब गुन-सागर, नव नागर, उन कौ रूप अपार।
हौं गुन-गरिमा-हीन, कृपन, ग्रामीन, कुरूपाधार॥
या बिधि हौं अजोग सब ही बिधि, सब बिधि हीन-मलीन।
तदपि सदा तिन के ही मृदु पद-पंकज की रज दीन॥