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प्रिये! तुहारा-मेरा यह अति / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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प्रिये! तुहारा-मेरा यह अति निर्मल परम प्रेम-सबन्ध।
सदा शुद्ध आनन्दरूप है, इसमें नहीं काम-दुर्गन्ध॥
कबसे है, कुछ पता नहीं, पर जाता नित अनन्तकी ओर।
पूर्ण समर्पण किसका किसमें, कहीं नहीं मिलता कुछ छोर॥
सदा एक, पर सदा बने दो करने लीला-रस-‌आस्वाद।
कभी न बासी होता रस यह, कभी नहीं होता विस्वाद॥
नित्य नवीन मधुर लीला-रस भी न भिन्न, पर रहता भिन्न।
नव-नव रस-सुख सर्जन करता, कभी न होने देता खिन्न॥
परम सुहृद, धन परम, परम आत्मीय, परम प्रेमास्पदरूप।
हम दोनों दोनोंके हैं नित, बने रहेंगे नित्य अनूप॥
कहते नहीं जनाते कुछ भी, कभी परस्पर भी यह बात।
रहते बसे, हृदयमें दोनों दोनों के पुनीत अवदात॥
नहीं किसीसे लेन-देन कुछ, जगमें नहीं किसी से काम।
नहीं कभी कुछ इन्द्रिय-सुखकी कलुष-कामना अपगति-धाम॥
नहीं कर्मका कहीं प्रयोजन, नहीं जानका तवादेश।
नहीं भक्ति-साधन विधि-संगत, नहीं योग अष्टांग विशेष॥
नहीं मुक्तिका स्थान कहीं भी, नहीं बन्ध-भयका लवलेश।
आत्मसात्‌‌ सब हु‌आ प्रेम-सागरमें, कुछ भी बचा न शेष॥
प्रेम-‌उदधि वह तल गभीरमें रहता शान्त, अडोल, अतोल।
पर उसमें उन्मुक्त उठा करते हैं नित्य अमित हिल्लोल॥
उठती वहीं असंख्य रूपमें ऊपर उसमें विपुल तरंग।
पर उन तरुण तरंगोंमें भी उसकी शान्ति न होती भंग॥
अडिग, शान्त, अक्षोभ सदा गभीर सुधामय प्रेम-समुद्र।
रहता नित्य उच्छलित, नित्य तरंगित, नृत्य-निरत अक्षुद्र॥
शान्त नित्य नव-नर्तनमय वह परम मधुर रस-निधि सविशेष।
लहराता रहता अनन्त वह नित्य हमारे शुचि हृद्देश॥
उसकी विविध तरंगें ही करतीं नित नव-लीला-‌उन्मेष।
वही हमारा जीवन है, है वही हमारा शेषी-शेष॥
कौन निर्वचन कर सकता, जब सुर-मुनि-परमहंस असमर्थ।
भोक्ता-भोग्य-रहित विचित्र अति गति, कहना-सुनना सब व्यर्थ॥