भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मकड़ी मकड़ी जाले पूर / प्रेमशंकर रघुवंशी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:21, 12 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रेमशंकर रघुवंशी |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मकड़ी मकड़ी जाले पूर !
पूर के जल्दी हट जा दूर !!

दूर बैठ जा गाले पर
देख कि कैसे खुद फँस जाते
कीट-पतंगे जालों पर
देख कि कैसे मक्खी-मच्छर
इनके चक्कर में आकर
हो जाते हैं चकनाचूर ।।

मकड़ी मकड़ी जाले...।।

इन जालों को देख देखकर
बने रूप कई जालों के
कोई चिड़ीमार के हाथों
कोई मछली मारों के
कोई जाल निरे नर भक्षी
कोई हरते सबके नूर ।।

मकड़ी मकड़ी जाले...।।

जिनको देखो उलझे बैठे
जालों के जंजालों में
कोई धर्म-कर्म में उलझे
कोई भ्रष्टाचारों में
कुछ के जाले सम्मोहक हैं
कुछ के हैं खट्टे अंगूर ।।

मकड़ी मकड़ी जाले...।।