भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यूँ दुनिया के करिश्मे / दीपक मशाल

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:31, 14 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दीपक मशाल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सारी कविताएँ-कथाएँ कहाँ हो पाती हैं खुदा
कहाँ बन पातीं परमात्मा
वाहे गुरु
या ईश्वर की बेटे-बेटियाँ
और जो कुछ हो जाती हैं
वो कविताएँ नहीं रह जातीं
कहानियाँ नहीं रह पातीं

धूमधाम से होता है उनका राज्याभिषेक
उनकी उत्पत्ति
होती है घोषित

उनके सृजन से करोड़ों वर्ष पूर्व की
और इन रचनाओं के बहाने
इस झूठ के पहरुए
बटोरते हैं ताकत

उनके निरंतर पाठ से
खुद में लाते हैं उबाल

फिर किसी रात की बाँह पर
अपनी-अपनी भाषाओं में
शब्द मनहूस गोदते हुए
एक दूसरे पर उड़ेल देते हैं
उनके आतंक का लावा

वो सारी कहानियाँ औ कविताएँ
खुद के रचे जाने का मातम मनाती हैं