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सर्वनाम जिंदगी / जयप्रकाश कर्दम

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तुम क्यों निरे बुद्धू बने रहे नत्थूराम
क्यों बैठे रहे मूल्यों को लेकर
जब सब उन्हें रौंदकर निकल रहे थे
क्यों नहीं सीखा तुमने भी
समर्थों से सहमति जताना
अन्याय को देखकर चुप लगाना
क्यों नहीं अपने हित साधन के लिए
दूसरों का इस्तेमाल किया तुमने
क्यों नहीं सीखा तुमने कृतघ्न हो जाना
क्या हो जाता यदि तुम भी थोड़े से
समझदार और सामाजिक हो जाते
समाज-हित के नाम पर
अपना हित साधन करते
दूसरों की तरह तुम्हारे पास भी
आज अच्छा सा मकान होता
और उनके जैसी सुविधाएं भी
इधर-उधर से चेपकर
दो-चार ग्रंथ छपवा लेते
साहित्य में तुम्हारा नाम होता
कोई न कोई पुरस्कार भी
तुम्हें जरूर मिल जाता
कई लोगों के लिए आदर्श होते तुम
कई उपलब्धियां तुम्हारे नाम के साथ
जुड़ जातीं
इन सब से निर्लिप्त क्यों रहे तुम
क्यों नहीं हुए सुविधाभोगी और लोलुप
तुम भी
क्यों नहीं सीखा तुमने तिकड़में बैठाना
किस मिट्टी के बने थे तुम नत्थूराम
न तुमने कोई संस्था या संघ बनाया
ना एन.जी.ओ.
न देश-विदेश की यात्राएं कीं
न शराब पीना सीखा
दूसरों की चाटुकारिता करना
अपने चाटुकार बनाना
महफिलें लगाना, गुट बनाना
लोगों की झूठी वाहवाही करना
खुद अपनी प्रशस्तियां लिखकर
दूसरों के नाम से छपवाना
कुछ भी तो नहीं किया तुमने
मंचों पर भी कहीं आसीन नहीं दीखे तुम
नहीं उगाना चाहा तुमने हथेली पर सूरज
न भरना चाहा मुट्ठी में धूप को
न हवा में उड़ान भरी तुमने
न ही पकड़ना चाहा आकाश को
सदैव जमीन पर चले
जमीन पर रहे तुम
फिट नहीं हो सके तुम कभी
तश्वीर की तरह-बने बनाए फ्रेम में
बेखौफ अपनी राह चले तुम
ओज के साथ आह्वान किया तुमने
‘आजाद हैं हम’
व्याकुल रहे तुम सदैव पार करने को
‘अंतिम अवरोध’
आतुर रहा फूट पड़ने को तुम्हारा आक्रोश
सचमुच, एक अलग तरह के
एक्टिविस्ट और इंसान रहे तुम
परिचित होकर भी अपरिचित से
चलते रहे निरंतर
परम्परा की धारा के विरूद्ध
कबीर की तरह
अपना घर फूंककर
समाज में चेतना की अलख जगाने
अपने वजूद के साथ अकेले
काश, एन.आर. थोड़ा ठहरकर
तुम अपने आस-पास
और खुद को देख पाते
अपनी सर्वनाम जिंदगी को
संज्ञा में बदल पाते।

(नोट: दिवंगत दलित साहित्यकार एन.आर.सागर की स्मृति में)