Last modified on 20 मार्च 2014, at 20:32

बस्तियों से बाहर(कविता) / जयप्रकाश कर्दम

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:32, 20 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जयप्रकाश कर्दम |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बन्द कर मेरी रौशनी के सुराख
वे उजालों की सैर करते हैं
वसुधैवों को एक कुटुम्ब बताने वाले
जाति, वर्णों में बंटे फिरते हैं
खूब आता है सताने का सलीका उनको
न्याय के नाम पर वो दंड दिया करते हैं
किसने किसको क्या दिया, लिया, छीना
बात उठती है तो परेशान हुआ करते हैं
सुना है चान्द और मंगल पर बसेंगी बस्ती
कहां होंगे जो बस्तियों से बाहर रहते हैं।