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उजालों के शहर में / जयप्रकाश कर्दम

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कहीं कुछ जल रहा है हमें कोई छल रहा है।
आस्तीनों के नीचे सांप सा पल रहा है।
किसी का पास आना नहीं अब रास उनको
जमाने की फिजा में ज़हर सा घुल रहा है।
तय किए जा रहा है जिन्दगी का सफर यूं
लिए कांधों पर सूरज सांझ सा ढल रहा है।
रोक पाएगा क्या अब कोई अवरोध उसको
कटे हैं पांव उसके मगर वह चल रहा है।
नहीं आंधी की परवाह नहीं तूफान का डर
जख्म दिल में दबाए वह मंजिल चढ रहा है।
बुझी आंखों में पाले ख्वाब कुछ अटपटे से
उजालों के शहर में दीये सा जल रहा है।