भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बस्तियों से बाहर(कविता) / जयप्रकाश कर्दम

Kavita Kosh से

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बन्द कर मेरी रौशनी के सुराख
वे उजालों की सैर करते हैं
वसुधैवों को एक कुटुम्ब बताने वाले
जाति, वर्णों में बंटे फिरते हैं
खूब आता है सताने का सलीका उनको
न्याय के नाम पर वो दंड दिया करते हैं
किसने किसको क्या दिया, लिया, छीना
बात उठती है तो परेशान हुआ करते हैं
सुना है चान्द और मंगल पर बसेंगी बस्ती
कहां होंगे जो बस्तियों से बाहर रहते हैं।