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अपन अपन आदर्श / मन्त्रेश्वर झा

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फूल बनब की काँट
आ कि कने मने दुनू
करब बन्दर बाँट
कने मने आदर्शक खेल
आ बाँकी कटाह विषधर
आ कि बनय चाहब
फूल आ काँट मिलल
जेना कोनो फूल गुलाब,
बनबैत प्रेमक बाट
पत्ती-पत्ती झरैत
प्रेमक दर्द गबैत
काँटक लाज मे सकुचाइत
आ कि बनब चटख सिङरहार
गम गम गमकैत
टप टप टपकैत
प्रकृतिक लीला जकाँ नचैत
अपन सभ किछु
अपनहि सँ लुटबैत
आनन्द मे बहकैत
आकि बनब एड़ी सऽ टिकासन तक
कर्कश कैक्टस
जेना कोनो माफियाक पहरू
जत्तहि पबैत
तत्तहि पकड़ैत अपन आसन
फँसबैत, दमसैत
आकि बनब कोनो गाछ
जत्ते उठैत ऊपर
ततबे गड़ैत नीचा
अपन नम्रतो के नुकबैत
तपैत ठूठ होइत
समय कुसमयक दर्द सहैत
भेल बेपर्द
बँटैत छाहरि
लुटबैत फल
आकि बनब अगबे
मनुक्ख
अपने टा स्वार्थ गनैत
ठकैत ठकाइत
समटैत कंकड़ पाथर
जे, ने छल
ने अछि
ने रहत
इहो ने सोचैत जे, जे रहत
से की ने की कहत।