भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जीवन से / केदारनाथ अग्रवाल

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:02, 1 अप्रैल 2014 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ऐसे आओ
जैसे गिरि के श्रृंग शीश पर
रंग रूप का क्रीट लगाये
बादल आये,
हंस माल माला लहराये
और शिला तन-
कांति-निकेतन तन बन जाये।
तब मेरा मन
तुम्हें प्राप्त कर
स्वयं तुम्हारी आकांक्षा का
बन जायेगा छवि सागर,
जिसके तट पर,
शंख-सीप-लहरों के मणिधर
आयेंगे खेलेंगे मनहर,
और हँसेगा दिव्य दिवाकर।