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नदी बहती है मुझमें / नीरजा हेमेन्द्र

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बहती रही सदियों से
अब तक
पर्वतों से निकल कर
पथरीली सतह पर
शैशव की किलकारियाँ
उत्ताल तरंगित ध्वनियाँ
आकृष्ट करता
युवा होता
उसका निर्झर रूप
वह चलती है
हरे पर्वतों से उतरती
सृष्टि के सौन्दर्य से अभिभूत
खोलती है नेत्र
फूलों के वनों में
अन्न भरे खेतों में
अनवरत रहती है गतिमान
शनै... शनै... शनै...
समतल बहती है शिथिल
यात्रा के उतार-चढ़ाव रहित
स्ंातृप्त करती धरा को
कलुषतायें समेटती हृदय में
चल पड़ती है वह
स्वयं को करने तिरोहित
भव-सागर से सागर में
नदी की यात्रा का अन्तिम पड़ाव...
समाप्त नही हुई वह
उद्गम से सागर तक की यात्रा के
सम्पूर्ण रूप, सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ
वह समाहित हो जाती है मुझमें
नदी बहने लगती है मुझमें...