भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काले बादल उजले दिन / नीरजा हेमेन्द्र

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:02, 1 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नीरजा हेमेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घिर आये बादल काले-काले,
दिन हुए पुनः उजले-उजले।
टप-टप बूँद गिरी पत्तों से,
नैनों में सुख स्वप्न भर गये।
परीन्दे लौटे घर को वापस,
ले कर संदेशा साँझ ढले।
मकई, गेहूँ, अन्न, धान,
फल-फूल उगेंगे खेतों में।
अबकी इस सावन में सखी री,
स्वप्न खिलेंगे रेतों में।
रात ढल गई जो थी काली,
दिन हुए पुनः उजले-उजले।
छप-छप करती बूँदे जल की,
बदली के आँचल से छलकी।
दादुर बोल उठे वन में
सावन की सुरमई साँझ ढले।