भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इस शहर के रहने वालों पर / फ़रीद क़मर

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:38, 3 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=फ़रीद क़मर |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatNaz...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस शहर के रहने वालों पर
ये पिछली रात जो गुज़री है
ये रात बहुत ही भारी थी
ये रात बहुत ही काली थी
कल शहर के इक चौराहे पर
कुछ शैतानों का जमघट था
इन शैतानों के चेहरे भी
बिल्कुल इंसानों जैसे थे
जब शाम के साये गहराये
और रात के आँचल लहराये
दिन भर के थके हारे पंछी
जब लौट के अपने घर आये
इक शोर उठा
मारो काटो
कुछ दर्द भरी चीखें गूंजीं
भागो भागो
सारी शब् ये कोहराम रहा
और रात के बेहिस होंटों पर
बस खून भरा इक जाम रहा
जब सुबह हुई
और सूरज ने
धरती पे नज़र अपनी डाली
कुछ आग में लिपटे घर देखे
कुछ लाशें औरतों मर्दों कि
बच्चों के कटे कुछ सर देखे

हर रस्ता खून से लतपत था
गलियों में अजब वीरानी थी
और सन्नाटों की सायं सांय से
खौफ का आलम तारी था
ये पिछली रात जो गुज़री है
इस शहर के रहने वालों पर
हर लम्हा कितना भारी था