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विधु-बदनी श्रीराधिके! / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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विधु-बदनी श्रीराधिके! मेरी जीवन-मूल।
तेरे विषम वियोगकी चुभी हृदयमें शूल॥
असहनीय अति वेदना, छिपा न रक्खी जाय!
कहना भी सभव नहीं, हु‌आ निपट असहाय॥
पूर्वपुण्य-परिपाक से पाऊँ निभृत अरण्य।
पथिक-रहित पथ, जो कभी दीर्घकाल तक शून्य॥
तो विछोह के शोक की बहे अश्रु-जल-धार।
मिश्रित घर्घर शब्द, सब पवित्र हो संसार॥