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देख रही सुन रही सभी / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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देख रही सुन रही सभी, जो सुनने और देखने योग्य।
पर मैं जुड़ी सदा ही तुमसे, भोक्ता तुम्हीं, तुम्हीं सब भोग्य॥
मेरा दर्शन, श्रवण हो रहा सभी सहज तुममें संन्यस्त।
मुझे बना माध्यम तुम रखते नित सेवा-लीलामें व्यस्त॥
सुनना, कहना तथा देखना-करना सब चलता अश्रान्त।
पर होने देते न कभी तुम उनसे भ्रान्त तथा आक्रान्त॥
कर तुम रहे विविध लीला सब बना नगण्य मुझे आधार।
नित्य दिव्य बल-कला-शक्ति निजसे करते लीला-विस्तार॥
चरण तुम्हारे पावनमें आ बसी पूर्ण मेरी आसक्ति।
भोग-राग मिट गया, हु‌ई प्राणों की तुममें ही अनुरक्ति॥
नहीं छोडऩे देते ममता मुझे, छोड़ते कभी न आप।
एकमात्र ममतास्पद मेरे तुम्हीं बने रहते बेमाप॥
सब कर्मोंका प्रेरक है अब केवल यह ममता-संबन्ध।
बँधी इसीमें मैं, तुमने भी है, स्वीकार किया यह बन्ध॥
स्वयं बँधे ममतामें, मुझको बाँध किया मायासे मुक्त।
रहे देख यों मुझे, देखता भोगोंको ज्यों विषयासक्त॥