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मैं अति दीन, मलिन मति / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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मैं अति दीन, मलिन मति, अन्तरमें अत्यन्त भरे कुविचार।
सहज कुरूपा बाहर-भीतर, नित्य दरिद्रा सभी प्रकार॥
नहीं रूप-गुण, वस्तु-भाव मन योग्य तुम्हारे किसी प्रकार।
पावन पद-रज-स्पर्श मात्रकी नहीं योग्यता, भरे विकार॥
पता नहीं तुम मुझपर कैसे रीझे, कैसे करते प्रीति।
भोलापन सर्वथा तुम्हारा, अथवा परम अनोखी रीति॥
मैं लज्जित होती-सकुचाती जब तुम निज गुण-गौरव भूल।
कहते मुझे प्रियतमे! प्राणेश्वरी! तोड़ मर्यादा-कूल॥
हृदय लगाते, करते फिर लीला, विचित्र सर्वदा अनूप।
पाते अति आनन्द, अचिन्त्यानन्त स्वयं आनन्द-स्वरूप॥
देते मुझे असीम परम सुख निज स्वभाववश सहज उदार।
स्वार्थभरी डूबी रहती है बढ़ती सुख-लालसा अपार॥