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मैं थी पहले मलिना / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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मैं थी पहले मलिना, दीना हीना अब भी मैं हूँ वैसी।
बाहर-भीतर मेरी कुरूपता छायी जैसी की तैसी॥
मुझमें सुशीलता, सुन्दरता, सद्‌‌गुणता, शुचिता कब कैसी॥
तुम जान रहे हो अन्तर की, अन्तर्यामी! मैं हूँ जैसी॥
मैं यही चाहती रहती हूँ तुमसे न मिलूँ बस, भूल कभी।
दुख देनेवाली है मेरी बाह्यस्नयन्तरकी क्रिया सभी॥
तुम सुन्दर सहज सुहृद हो संतत सदय हृदय सब काल अभी।
सद्गुण पूरित दृग देख रहे सर्वत्र दिव्य गुणराशि तभी॥
तुम सहज प्रेममय हो स्वभाव-वश करते हो बस, प्रेम सदा।
तुम मेरी त्रुटियों को-दोषों को अतः देख पाते न कदा॥
है नहीं दीखता तुम्हें कभी जो है मुझ पर अघभार लदा।
देते-देते थकते न कभी हो, दोष दीखते हैं न तदा॥
तुम नहीं मानते हो, मैं हूँ निरुपाय, करूँ क्या मैं अबला?
तुम जो चाहो सो करो, तुम्हारी अमित शक्ति-मति है प्रबला॥
पर मेरी है विनीत-विनती यह एक इसे कर दो सफला।
मैं रहूँ सदा गुण-मान-शून्य को‌ई निज की जागे न कला॥
तुम करो-करा‌ओ जो चाहो, मैं बनी रहूँ पुतली करकी।
जीना-मरना, हँसना-रोना, सब ही हो लीला नटवरकी॥
जागे न कदापि ‘अहं’ मुझमें सुधि हो न भयंकर-सुन्दरकी।
मैं रहूँ नाचती इच्छा से अपने जीवन-धन प्रियवर की॥