भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चाह-कुचाह मिट गयी सारी / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:21, 3 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चाह-कुचाह मिट गयी सारी, रही एक यह ‘प्यारी चाह’।
मधुर तुम्हारे स्मृति-सागर में डूबी रहूँ, न पाऊँ थाह॥
मेरे सब कुछ एक तुम्हीं हो, सारी ममता के आधार।
मैं भी एक तुम्हारी ही हूँ, ममता मुझपर नित्य अपार॥
तुम्हें छोडक़र नहीं दीखता कभी कहीं भी को‌ई और।
एक तुम्हीं करते विहार नित मधुर मनोहर सब ही ठौर॥
नहीं दीखता मुझमें मेरा कुछ भी भला-बुरा गुण-दोष।
नित्य कर रहे तुम वे लीला, जिनसे तुम पाते परितोष॥
क्या मैं कहूँ, करूँ कैसे कुछ और? बता‌ओ प्रियतम श्याम!
जब कि तुम्हीं बाहर-भीतर कर रहे नित्य लीला अभिराम॥
करते रहो सदा तुम लीला यों ही मनमानी स्वच्छन्द।
अंग-अंग, मन-मति-‌आत्मा, सब देते रहें तुम्हें आनन्द॥