प्रेम पवित्र परम उज्ज्वल / हनुमानप्रसाद पोद्दार
प्रेम पवित्र, परम उज्ज्वल, जो काम-कलुष से रहित, उदार।
शशधर-कलासदृश प्रतिपल ही बढ़ता रहता सहज अपार॥
नहीं कभी भी, किसी हेतुसे, हो सकता उसका प्रतिरोध।
नहीं कभी उसका कर सकता कोई लौकिक भाव निरोध॥
धन-जन-तन, बहु-भोग-जनित सुख, दुःख प्रबलका तनिक प्रभाव।
नहीं कभी होता प्रेमाप्लावित मनपर, रहता सद्भाव॥
नहीं नरकका भय रहता कुछ, रहता नहीं स्वर्गका काम।
जीवन-मरण प्रेम-रसमें नित डूबे ही रहते अभिराम॥
प्रियतम प्रभु बन स्वयं मधुरतम प्रेमसुधा-रस-पारावार।
करते परम मनोहर अपनेमें ही आप विचित्र विहार॥
उठतीं ललित लहरियाँ उसमें अनुपम, अमल, अमित, अविराम।
देतीं सतत अनन्त कालतक सुख शुचि, नित्य नवीन, ललाम॥
इह-पर रहता नहीं, नहीं रहता अनित्य दुखमय संसार।
उठता नहीं मोक्ष-सुखका भी मनमें लव भर कामविकार॥
रहते प्रियतम सुख-सच्चिन्मय छाये एक सदा सर्वत्र।
सदा अमृत-रस-वर्षा होती सुर-मुनि-दुर्लभ, परम पवित्र॥