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स्व सुख-वासना-गन्ध / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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स्व-सुख-वासना-गन्ध-लेशकी भी न कल्पना पाये जाग।
सर्वत्यागमय कृष्णसुखेच्छापूर्ण उदय हो शुचि अनुराग॥
भुक्ति-मुक्तिमें रहे न अणुभर राग-कामना-ममता-लेश।
पावन प्रेम-अनलमें सब कुछ जलकर हो जायें निश्शेष॥
सर्वसमर्पण रहे, रहे पर नहीं समर्पणकी कुछ याद।
प्रियतम-सुख जीवन हो, जाग्रत् रहे नित्य नव-रस-उन्माद॥
बने लोक-परलोक सभी कुछ प्रिय-सुख-लीला-रंगस्थान।
‘बन्धन-मोक्ष’ मुक्त हों, लीला-साधन बन पायें समान॥
विरह-मिलन दोनोंमें रति-रस-सागर प्रतिपल बढ़े अपार।
थाह न पाये परमहंस योगी, ऋषि-मुनि मन मानें हार॥