लग जाती है होड़ परस्पर प्रेमी-प्रेमास्पद में शुद्ध।
देते सुख-समान परस्पर, करते हठ अविरुद्ध विरुद्ध॥
तुम आरोगो, मैं लूँ पीछे अधरामृतयुत महाप्रसाद।
आता उसमें मुझे विलक्षण परम मधुरतम दिव्य स्वाद॥
मुँहमें रख, रस ले, निज रस भर, दो तुम मुझे चबाया पान।
पान्नँ मैं अति मधुर, मनोहर रस उसमें विरहित उपमान॥
तुम बैठो, मैं करूँ तुहारा निज हाथों सुन्दर श्रृंगार।
निज कर चुन सुरभित सुमनों का गूँथ तुहें पहनाऊँ हार॥
मान करो तुम, तुहें मनाऊँ मैं, कर अति विनीत मनुहार।
तुम पौढ़ो, मैं पग चाँपूँ, मैं करूँ सुशीतल सुखद बयार॥