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सेवा करती नित प्रियतम की / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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सेवा करती नित प्रियतम की, प्रिय को सुख पहुँचाने हेतु।
करती सब मर्यादा रक्षा, देती तोड़ सहज श्रुति-सेतु॥
प्रियतम को सुख पहुँचे, उसका एकमात्र इतना ही धर्म!
नहीं समझती अपने भले-बुरेका अन्य दूसरा मर्म॥
उसकी सेवासे नित होता प्रियतमको शुचि सुख स्वच्छन्द।
इसे देखकर मिलता उसको लाखोंगुना अधिक आनन्द॥
पर निजसुख वह होता यदि प्रियतम-सुखमें बाधक क्षण एक।
तो वह उसे मानती पातक, घोर दुःख, तजती सविवेक॥
नरक-स्वर्गकी, दुःख-सुखोंकी करती नहीं कभी परवाह।
एकमात्र मन रहती बढ़ती नित प्रिय-सुखकी निर्मल चाह॥
सेवा-सुख-स्वरूप प्रियतम का बन जाता उसका शुचि रूप।
अहंरहित नित होती रहती उससे सेवा परम अनूप॥